जन्म लेते ही भारी विपदा से निपटते हैं
भोर की पहली किरण पर झूमते
नत मस्तक हो धरा को चूमते हैं
नियति मान कर्तव्य का मान रख
पारिजात के योद्धा चुनौती को निकलते हैं
बिना सिलवटों के चादर सामान
धरा को ढक अभिमान से ,प्रणेता को तकते हैं
सिर्फ अधिकार नहीं ,दायित्व की भाषा भी खूब समझते हैं
जीवन की आहुति से भी नहीं डरते
जड़ों से कटने का दर्द भी अन्दर ही निगलते हैं ....
achchi rachna.........
ReplyDeleteधन्यवाद रीता जी
Deleteसुन्दर प्रस्तुति..।
ReplyDeleteसाझा करने के लिए आभार...!
धन्यवाद शास्त्री जी
Deleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (09-06-2013) के चर्चा मंच पर लिंक की गई है कृपया पधारें. सूचनार्थ
ReplyDeleteआभार अरुण जी
Deleteसुंदर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद वर्मा जी
Deleteपारिजात ही जड़ों से कटने के दर्द को इतनी सहजता से झेल जाते हैं। सुंदर रचना अरूणा जी।
ReplyDeleteभोर कि पहली किरण और पारिजात का जमीन को चूमना गजब प्रतिबिम्ब.
ReplyDeleteआभार रचना जी
ReplyDeleteबहुत उत्तम ... परिजात का पुष्प सदा स्तान पाता है रचनाओं में ...
ReplyDeleteआभार दिगंबर जी
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