Saturday 27 April 2013

इंडिया गेट पर २०१३ की एक शाम १९३१ के नाम ............

२३ मार्च २०१३-पेंथर पार्टी द्वारा आयोजित कोई कार्यक्रम अवश्य होगा जानती थी | उसी दिन इंडिया गेट जाकर पता चला कि इंडिया गेट रोज़ शाम को चार बजे बंद हो जाता है . निराशा हुई लेकिन फिर सोचा चलो दूसरे छोर से जाकर देखते हैं . रास्ते में एक दो फोटो खींचने लगे तो पुलिस वाले से झड़प हो गयी , जबकि हम कोई नियम उलंघन नहीं कर रहे थे |  आगे बढे तो राजपथ पर लोगो का हुजूम नज़र आया शान्ति मिली कि हमारा आना व्यर्थ नहीं रहा | कुछ देर इधर -उधर घूमे और फिर शाम ढलते ही पेंथर पार्टी के लोग आ गए तो हम भी उस कार्यक्रम का भागी बने , शहीदों को याद करते समय एक भावना थी मन में एक उत्साह था भूल गए कुछ देर के लिए कि हम कहाँ हैं किस सदी में हैं ?


नियति देखिये !! जिन लोगो ने देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उन के लिए प्रजवल्लित  प्रकाश पुंज को इंडिया गेट की पवित्र अग्नि तक ले जाने की अनुमति पुलिस ने नहीं दी सड़क पार कर बेरियर के सामने ही सबने अपनी श्रधांजलि अर्पित की 


सरकार तो एक शब्द भी श्रद्धा के रूप में कहना नहीं चाहती, भूल गयी है कि कैसे स्वराज मिला ?
आज भारत का जो स्वरुप है उन शहीदों ने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी .अच्छा हुआ जो उन्हें पता नहीं है कि हमारी शहादत का क्या हश्र है .......!! लेकिन हर सच्चे भारतीय के दिल से उनके लिए आवाज़ आती है .....
बलिदान ना भूल जाएँ हम उन वीर शहीदों के ,नतमस्तक हो जाएँ मिल कर सम्मान में वीरों के 
वन्दे मातरम् ..........


सुख और दुःख




सुख और दुःख धरती के, ध्रुव की तरह होते हैं
लेकिन प्रतिक्रया में दोनों के, आंसू ही होते हैं
एहसास में दर्द के, झलकते हैं हैं आंसू
आवेग में ख़ुशी के ,टपकते हैं आंसू
बहुमूल्य  है वो बूँद, जो आँखों में लरजती है 
टपके ना जब तक ,कीमत पता नहीं चलती है 
भावनाओ का वेग जब, अश्कों में बदल जाता है
उर का वो तूफ़ान , नैनों से निकल जाता है
गिरने वाला हर अश्क ,एक जैसा नज़र आता है
सुख - दुःख का रिश्ता, इन अश्कों से बांध जाता है 
क्या है फर्क   ???    और किस से इसका नाता है 
आँख और अश्कों के सिवा कोई नहीं जान पाता है 
सच्चा हम दर्द ही, ये जान पाता है कि
टपकी बूँद का किससे (दुःख या सुख ) ,, नज़दीक का नाता है

यादें ,व्यथा और सच्चाई


ना चिड़िया का चहचहाना ,ना कांव -कांव काग का ,
अंत हो चला है शहरों में पंछियों के राग का
महानगर तो  इस दौड़ में बहुत आगे हैं ,

बुजर्ग भी भूल गए हैं कि कभी मुर्गे की बांग पर भी जागे हैं 
घडी के अलार्म में बांग कहीं खो गयी है , 
अब तो यही आवाज़ अपनी साथी हो गयी है 
याद है पक्षियों का शाखों पर मंडराना , 
अपनी सुर ताल में गाना ,गुनगुनाना
सांझ होने का एक अदभुत एहसास पाया है ,
कई आकृतियों में  गगन में उड़ता पंछियों का झुण्ड आज भी दिमाग पर छाया है
कलरव करता ,बसेरों की ओर बढ़ता ,
पंछियों का झुण्ड आसमान में होता था 
सूर्य को विदा देता सांझ का आगाज़ ,
बड़ा ही मनोरम होता था
चूल्हे से उठती सुगंध ,नथुनों में समाती थी , 
स्याह परिधान में लपटी रजनी द्वार पर नज़र आती थी 
दिन भर के थके पथिक बाहँ पसार कर स्वागत करते थे ,
निद्रा के आगोश में मीठे  सपने बुनते थे
आज महा नगर जीवन की आपा -धापी में , सुबह शाम भूल गया है ,
सपने की बिसात क्या !! निद्रा से भी विमुख हो गया है 
ये बड़े -बड़े शहर रात भर जागते हैं , 
मशीन बन चुके मनुष्य सड़कों पर भागते हैं
वाहनों  की चिल्ल -पों ने बघिर  कर  दिया है ,
स्वच्छ ,नीले आसमान को भी झुलसा कर स्याह कर दिया है 
तारों भरा थाल केवल स्वप्न बन गया है ,
सर पर धवल चांदनी नहीं काला तम्बू तन गया है
चन्दा मामा भी अब नज़रें चुराते है ,
बच्चों को भी वो अब याद नहीं आते हैं 
याद नहीं कब चैन की नींद आई थी , 
मीठे स्वप्नों की तृप्ति कब मुख पर छाई थी
स्वप्न भी मीठे नहीं, दुखदायी होते हैं , 
सुबह की चिंता में पलक बड़ी मुश्किल से बंद होते हैं 
ना सुकून है दिन में ना रात में आराम , 
जीवन की आपा धापी ने मेरे छीन  लिए सुबह शाम
चक्र है समय का ,परिवर्तन स्रष्टि  का नियम ,
बदलना है साथ इसके रख कर संयम 

प्रकृति का नियम




पीले  पत्ते पेड़ों से गिर कर , नए पत्तों को स्थान दे रहे हैं...

यही नियम बनाया है प्रकृति ने ,उसे सम्मान दे रहे हैं.....

मानव भी इसी तरह ,जीवन -पथ पर चलता ,पत्ते सा झड जाता है....
किसी माँ की कोख का कोई नन्हा शिशु ,उसका स्थान पा जाता है.......

नदिया का जल भी समुद्र में विलीन हो , नए जल का स्थान बनाता  है.......
तरु का फल भी मिट जाता है , और नए बीज को जन्म दे जाता है.......

जो विनम्र और सहनशील बन इस नियम को अपनाता है......
वही  महान बन अमर हो जाता है..........

जो समझ न सका इस बात को , अपनी अकड़ दिखता है.......
वह किसी अकड़े तालाब की भांति दूषित  और उपेक्षित हो जाता है 

अंतत


आज सुबह खाना बनाने से छुट्टी मिली तो उसे ये परिवर्तन बड़ी ही राहत दे गया 😊सुबह लंच पैक न करने से छुटकारा मिला ये परिवर्तन उसे बहुत भाया  
उसने अपने दैनिक कार्य पूर्ण किये और एक कप चाय बना कर गैस बंद की ,दो रस्क निकाले और कप उठा कर कमरे में आगई ,आज सोच लिया था उसने 
शब्दों को मना कर रहेगी ।
आज बहुत दिन बाद समय मिल है
उसे मनाना ही होगा अपने रूठे शब्दों को ☺️
कुछ दिनों से प्रयत्न करने पर भी शब्द साथ नहीं दे रहे 
थे ,वो चाहती थी कुछ लिखना ।
मन के भावों को कागज़ पर उकेरना ....!!
लेकिन शब्दों ने भी ठान लिया था ,नहीं ,साथ नहीं देंगे मोर्चा खोल लिया था जैसे उसके विरूद्ध😔
ऐसा पहली बार नहीं हुआ था बीच -बीच में उसके अक्षर उसे ऐसे ही परेशान करते और फिर एक दिन अचानक उसके सामने आ खड़े होते .😀
ऐसे ही चल रहा था
पैन उठाया और लिखने ही लगी थी कि दरवाज़े की घण्टी बाधा बनी
उफ़ .!!..कोफ्त हुई उसे ..........
लेकिन खोलना पडा दरवाज़ा ........
फ्लैट संस्कृति और एकल परिवार एक बाध्यता बन चुकी है .महानगरों में .....
दरवाज़ा खोल कर रह नहीं सकते हैं और घण्टी के चिंघाड़ने पर तो खोलना ही होगा अब अकेले आदमी के लिए मुश्किल होता है,आप कहीं व्यस्त हो सकते हैं ,
कई बार जब बाथरूम में हों तो बाहर खड़े व्यक्ति की झुंझलाहट चरम पर होती है ।
उठकर दरवाजा खोला तो सामने अक्कू  खडा था यानी अंकित ऊपर की मंजिल पर रहता है ..........
दरवाज़ा खोलते ही पैरों पर झुक आया ..
अरे क्या हुआ ??उसने झुक कर उठा लिया उसे .....बड़ी मम्मी मेरा जन्म दिन है ......
ओह ! अच्छा याद आया ..कल ही तो भावना  मिली थी ,  अक्कू की मम्मी और उसने बताया भी था ......
भूल ही गयी मैं.....
उसे आशीर्वाद दिया ,प्यार किया और देखा तो घर में मीठे के नाम पर एक मात्र बेसन का लड्डू  था ..लेकिन अक्कू काम तो बन ही गया .......
उसके मुह में रख दिया .....
दस वर्षीय बच्चा खुश होता चला गया .......
ऊपर रहता है उसका परिवार ...दादा -दादी ,चाचा -चाची भरा पूरा परिवार लेकिन घर के सभी पुरुष दम्भी, दुष्ट और नपुंसक थे...........शाम होते ही घर का 'बार' खुल जाता क्या पिता और क्या बेटा महफ़िल जम जाती तो देर रात तक चलती ........
अक्सर शोर-गुल भी होता था ,लेकिन क्या किया जाए एक तो पड़ोसी दूसरे भावना बहुत प्यारी और व्यवहार कुशल थी ,मेरी अच्छी जमती थी उसके साथ ।
अठारह फ्लैट वाली इस बिल्डिंग में सब उसके परिवार के सदस्य ही थे ।अपने परिवार के विरूद्ध जाकर कभी कुछ ना बोलती लेकिन किसी से कहाँ कुछ छिपा था .........!!!
अरे !!! क्या सोचने लगी थी वो कलम और कागज़ हाथ में थे ..और वो उड़ चली थी भावना के घर ..........
शाम को अंकित के लिए कुछ लाना होगा बाज़ार  से |
उसने सोचा चाय की और देखा तो ठंडी हो मुह चिढा रही थी ......चिढ़ हो आयी आई उसे .....एक कप चाय भी  ढंग से नही पी सकते ......
लेकिन अब मन नहीं था बनाने का, तो उसने बिना चाय के ही रस्क का टुकडा मुह में डाल लिया ......और फिर से अपने लक्ष्य पे ध्यान केन्द्रित कर दिया ............
अभी लिखने का प्रयत्न कर ही रही थी कि फोन बज उठा उफ्फ्फ्फफ्फ्फ़ ..!! बेमन से उठाया लेकिन उठाते ही चहक उठी ....
अच्छा !!!....कब आ रही है ?? पूछा था उसने .....उसकी प्रिय सहेली राधा और उसकी बेटी अनुभा आ रही थी  राधा एक छोटे कस्बे में रहती थी .सिर्फ १२ क्लास तक ही वहां पढ़ सकते थे अनुभा ने पास के एक शहर से 
बी काम अच्छे नंबर में पास किया था लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए कोई उचित साधन नहीं था .....इस लिए उसे यहाँ कोई कोचिंग करनी थी पूरी बात कहाँ बतायी थी ...आने पर सब जान ही लेगी अभी तो उसके आने की तैयारी करनी होगी ....बहुत साल बाद मिल रहे हैं ..........
याद नहीं कब मिले थे ..???? हाँ समाचार मिलते रहते थे
उसके आने में अभी दो -तीन घंटे थे अच्छा हुआ फोन किया .........आज सुबह उसने कुछ बनाया ही नहीं था क्षितिज टूर पर गया था और रजनीश के ऑफिस में आज पार्टी थी तो दोपहर के खाने के लिए मना कर दिया था ,तभी तो परिवर्तन के चलते लंच पैक से छुटकारा मिल था .......अब उस ने अपने लिए भी कहाँ कुछ बनाया था ......
उसे लगा आज भी शब्दों से मनुहार नहीं हो पाएगी चलो देखते हैं कब तक नहीं मानते !!
सोचते हुए ..कापी और कलम रख रसोई में आ गई ........ चाय की इच्छा तेज़ हो गयी थी ,पहला काम वही किया उसने😊 क्या नशा है सोच कर हंसी आ आ गयी .......
फिर सब्जी बनाने की तैयारी करने लगी .........
चालीस मिनट बाद वहां बिताने के बाद उसने एक सब्जी ,रायता बना लिया ,आटा मल कर रख दिया पुलाव की भी तैयारी हो गयी आज अपनी मर्ज़ी से खाना बनाया है कल उसकी पसंद से बनाएगी ,खूब जानती है उसकी पसंद को !!!.........अब वो निश्चिन्त थी ........
लेकिन अब उसका मन नही हुआ कि कापी या कलम
 को हाथ लगाए ,फिर भी प्रयास करने लगी कि कलम कुछ साथ दे लेकिन बार -बार राधा उसके विचारों में आ खड़ी हुई तो उसने कलम और कापी एक और रख दी और मन में स्मृतियों की गर्द हटती चली गयी 
तीन बेटियों की माँ राधा की  दास्तान कोई भिन्न नहीं थी समाज में तीन बेटियों की माँ होना घोर अपराध की श्रेणी में आता था ,राधा भी घोर अपराधी थी ..जघन्य अपराध था उसका  ....................
सरकारी संस्थान में एक अच्छे पद के स्वामी उसके पति ना तो पति अच्छे थे ...ना ही अच्छे पिता बन पाए थे ..बच्चों ने बचपन नहीं जाना क्या होता है ??.
घर में एक तनाव मय माहौल रहता था
 सास के ताने-उलाहने ,ननद की छींटाकशी ,पति की दुत्कार की परिणति धीरे-धीरे दादी ,बुआ और पिता की उपेक्षा में होने लगी थी .
बुआ शादी कर अपने घर ज़रूर चली गयीं थी पर उनका अनावश्यक हस्तक्षेप हमेशा बना रहा राधा के घर में 
यही सब देखते -देखते उसकी बेटियाँ बड़ी होने लगी 
बेटियों ने जान लिया था कि उनका और माँ का क्या स्थान है इस घर में ,लेकिन कहाँ जाते .......????
जैसे -तैसे निर्वाह होता .....पैसे की कोई कमी नहीं थी पर बेटियाँ एक -एक चीज़ के लिए तरसती थी
समय बीतता रहा सामंजस्य को नियति मान माँ -बेटी समय काट  रही थी .....एक समय आया दादी नहीं रही तो पति अकेले रह गए ......अब बहन भी अपने बच्चों की पढ़ाई,परिवार में व्यस्त हो गयी तो पतिदेव को परिवार का महत्त्व समझ आया ,अब जाकर बच्चों की आवश्यकता को समझना आरम्भ किया है तो प्रायश्चित कर ,सम्बन्ध सुधारने में लगे हैं  ......मैं स्वयं भी राधा के घर के बदलते परिवेश को सुन कर, अनुभव कर सकती हूँ .......और बड़ी ही प्रसन्नता होती है ।ध्यान आया अरे शाम को अक्कू का जन्म दिन भी है तो क्यों न बाज़ार का काम ही निपटा लूँ ......
जल्दी से घर का ताला लगाया और निकल पड़ी राधा के आने से पहले ये काम हो जाएगा फिर आराम से गप्प हांकेंगे .......वह लौटी तो शाम ढल रही थी जाकर अक्कू को उसका गिफ्ट दिया और बाद में ना आ सकने में असमर्थता जताई ...
भावना ने प्यार भरा उलाहना दिया ..लेकिन मैं उसे समझा कर उसके गाल पर हलकी चपत लगा वापस आ गयी 
.सीढियाँ उतर नीची आई तो राधा को दरवाज़े पर पाया 
अरे कब से खड़ी है ..??.....मैंने उसे गले लगाया ........
'पहले दरवाज़ा खोल दस मिनट से तेरे घर की बैल बजा रहे हैं ...........
ओह !!  हाँ अरे आओ ना ........
जल्दी से ताला खोल उसका सामान उठाया और अन्दर आगई .........
अनुभा को गले लगा कर प्यार किया और उनके नाश्ते की तैयारी में जुट गयी ..............
कोल्ड काफी के साथ चिड़वा ले आई तो राधा बोल उठी अब सिर्फ चिड़वा ही खाने नहीं आये हैं तेरे यहाँ तुझे पता नहीं मेरे खाने के शौक का ? कह खिलखिला कर हंस पड़ी ....... 
हाँ -हाँ जानती हूँ अनुभा ने अजीब सी नज़रों से माँ को देखा तो वो भांप गयी.........
'अरे बेटे तुम मत पड़ो बीच में ऐसा ही है हमारा प्यार'......
अनुभा मुस्करा  दी .......कितनी प्यारी है अनुभा ......
बचपन में देखा था तब से आज देख रही हूँ उसने सोचा 
नाश्ता कर अनुभा सोफे पर लेट गयी और आँखे बंद कर ली ....उसने कहा भी अन्दर जाकर आराम से लेट जाए नहीं मानी .........
राधा भी अब आराम अनुभव कर रही थी .............
खाना तैयार ही है बोल लगाऊ क्या ...????.....
उसने पूछा 
अरे नहीं अभी नहीं ...रजनीश आ जाएं  तभी साथ खायेंगे अब  बैठ कर बात करते हैं ...उनके साथ आज खाना न हो सकेगा , खा कर ही आएंगे  आज केवल हम और तुम.....
ओह ! अच्छा-अच्छा , लेकिन कुछ देर में खाते हैं
सालों हो गए मिले ......राधा फिर चहकी ........
बहुत खुश लग रही थी .....
हाँ  याद भी नही कब मिले थे 🤔🤔अभी आती हूँ ज़रा ये बर्तन हटा दूँ ..बर्तन अन्दर रख वो लौट रही थी
तो कापी और पेन नज़र आये कापी  खुल गयी थी पता नहीं कैसे ..?
उसने तो बंद की थी ..............
आज भी नहीं मना पायी थी वो रूठे अक्षरों को .....लगा लिखे अक्षर अपनी जीत पर उत्सव मनाते लग रहे थे उसने कापी बंद की और राधा की ओर चल दी ............
अंतत अक्षर जीत गए थे .........................


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