समय का चक्र निर्विघ्न घूमता है ,
क्षण क्या युग भी उसके कदम चूमता है
गिन नहीं सकते थे चाह थी तारे गिने
घटते बढ़ते चाँद से कभी तो मिलें
चाँद कहीं खोगया ना किसी को दीखता है
नीला तारों भरा आसमान हर कोई खोजता है
बचपन हरे -भरे खेतों में खेला था
हरियाली का साम्राज्य चतुर्दिक फैला था
बेबस धरा का स्वर पल -पल भीगता है
कृतघ्न , कृतज्ञता को पैरों तले रौंदता है
पथ के दोनों ओर होती थी वृक्षों की कतार
सहमी डरी लगती थी धूप और फुहार
कंक्रीट के जंगल में मानव लक्ष्य ढूंढता है
जीवन यापन का प्रश्न दिलो दिमाग में घूमता है
सावन कारे बदरा को लुभाता था
भादों आया फिर रवि भी मुंह चुराता था
मोर की पीहूं-पीहूं , मेढक का टर्राना
आज भी स्मृति में कहीं गूंजता है
समय का चक्र निर्विघ्न घूमता है ,
क्षण क्या युग भी उसके कदम चूमता है